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पगला कहीं का (कहानी) – डॉ. सुधाकर आशावादी

Neerajtimes.com – ‘अजीब आदमी है…पैसा खर्च करना ही नहीं जानता, अपनी देह का ख्याल ही नहीं..। प्रथम परिचय के उपरांत ही अभिनव अपना निष्कर्ष व्यक्त कर चुका था, चूंकि मैं परिमल से पूर्व परिचित था, सो मुस्कराया- अभिनव अभी तुमने परिमल बाबू का मात्र एक स्वरूप देखा है, यदि कुछ दिन इनके क्रियाकलापों को अपनी आंखों से देख लोगे तो इनका जीवन दर्शन समझ जाओगे…।‘

‘नाहक ही आप मेरा और अपना समय बर्बाद कर रहे हैं, जिस व्यक्ति का पहनावा ही उपयुक्त नहीं है वह भले ही स्वयं में कितनी ही उपलब्धियां अर्जित किए घूमे कोई मूल्य नहीं है।‘ अभिनव ने अपना तर्क प्रस्तुत किया।

‘जैसी तुम्हारी इच्छा भई मैं तो इन्हें आदर्श पुरुष मानता हूं।‘ मैंने बेबाकी से अपनी राय व्यक्त की।

‘इसे तुम्हारी गलीच मानसिकता ही कहा जाएगा, जिस व्यक्ति को पास बैठाने में भी शर्म आए और तुम उसे अपना आदर्श मानो’ सीधा मतलब यही है कि तुम भी उसकी तरह बनना चाहते हो।Ó

‘बेशक…यदि इतनी विद्वता प्राप्त हो जाए, तो …।‘ मैंने सगर्व कहा।

प्रोफेसर परिमल के घर से लौटते हुए मेरा तथा अभिनव का वार्तालाप जारी था। प्रोफेसर परिमल की विद्वता का विश्लेषण करके मैंने अभिनव के मस्तिष्क में प्रोफेसर परिमल की जो छवि निर्मित की थी, वह प्रथम परिचय में ही भरभराकर ढह गई थी। जिस कारण अभिनव स्वयं पर ही झल्ला रहा था, कि वह नाहक ही मेरी बातों में आ गया तथा अपने व्यस्त कार्यक्रमों को छोड़कर प्रोफेसर परिमल के घर पहुंच गया था।

यूं तो प्रोफेसर परिमल जिस घर में रहते थे, वह हवेलीनुमा मकान था, जिसका मुख्य द्वार ही बहुत बड़ी दुबारी में से था, जिसके बांयी ओर चार दरवाजों वाली बैठक थी, जिसके तीन दरवाजे दुबारी की ओर खुलते थे तथा एक दरवाजा गली की ओर, दुबारी में बांयी ओर प्रथम मंजिल पर जाने हेतु जीना था भीतर जाकर एक चौड़ा दालान था, जिसके पश्चिमी ओर बरांडा तथा चारों ओर कमरे बने थे, अधिकांश कमरों में ऊंचे-ऊंचे दरवाजों व दीवार में धंसी अलमारियों की संख्या अधिक थी। प्रथम मंजिल पर भी भूतल के निर्माण की तरह का ही निर्माण था, कुल मिलाकर अपने समय का अच्छा मकान रहा होगा, समय के थपेड़ों के साथ वह भी जर्जर अवस्था की ओर अग्रसर था, किसी दीवार का प्लास्तर उखड़ चुका था, तो अलमारियों को पारदर्शी जताने के लिए लगाए गए शीशे चटख गए थे, जिससे यही प्रतीत हो रहा था कि प्रोफेसर परिमल का पारिवारिक अतीत काफी समृद्घ रहा होगा।

स्नातकोत्तर महाविद्यालय के रसायन विभाग से सेवानिवृत्त प्रोफेसर परिमल का जीवन जैसे त्याग की जिन्दा मिसाल बनकर सबके सम्मुख था। कॉलेज के दिनों में महापुरुषों के जीवनदर्शन को समझने की ललक ने ही उन्हें अध्ययनशील बना दिया था, महाविद्यालय में प्रवक्ता पद संभालते ही विवाह हेतु अनेक प्रस्ताव आए, किन्तु परिमल ने तो कुछ और ही ठान रखा था। वह किसी देहधारी को अपनी प्रेयसी, पुस्तकों की सौतन के रूप में स्वीकार ही नहीं कर पा रहे थे, उन्होंने दो टूक फैसला अपने परिजनों को सुनाया, तो परिजन सन्न रह गए। परिमल को बहुतेरा समझाया कि जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव आते हैं, यदि जीवन साथी का स्नेह साथ है तो बड़ी से बड़ी समस्या को भी सूझबूझ और सहयोगी भावना से निपटाया जा सकता है। पुस्तकें मार्ग प्रशस्त कर सकती हैं, किन्तु स्वयं किसी देहाकार में उपस्थित होकर सहानुभूति के दो बोल भी नहीं बोल सकतीं, सो विवाह प्रस्ताव की स्वीकृति देकर जीवनपथ पर गमन करने का निश्चय करो।

प्रोफेसर परिमल न जाने किस मिट्टी के बने थे, टस से मस नहीं हुए। परिजनों ने दूसरा पासा फेंका, मां आंखों में आंसू भर लाई- माता-पिता की अपनी सन्तान से बड़ी अपेक्षाएं होती हैं। परिवार में सभी वृद्घजन अपनी वंशवृद्घि पर फूले नहीं समाते, वंश का आगे बढऩा प्रकृति की अनुपम देन है। पुत्र से अधिक स्नेह पौत्र पाता है, सो प्रकृति के नियमों का पालन करने के लिए ही विवाह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया जाए।

प्रोफेसर परिमल पर मां के आंसुओं का भी कोई प्रभाव नहीं पड़ा, वह अपने निर्णय पर अडिग थे, उनका तर्क था कि विवाह बंधन किसी भी प्रतिभा के पैरों में पड़ी वे बेडिय़ां हैं, जो व्यक्ति की स्वतंत्रता में बाधक है , अकेला व्यक्ति कहीं भी रहकर स्वतंत्रतापूर्वक राष्ट्र सेवा का संकल्प निभा सकता है, विवाहित पुरुष के लिए पत्नी एवं परिवार ही प्रथम अनिवार्यता बनकर व्यक्ति को कत्र्तव्यपथ से पीछे धकेलते हैं, सो जब तक इस बंधन से मुक्त रहा जाए, तभी तक अच्छा है, मुझे इस जीवन को सार्थक सिद्घ करना है, सो विवाह जैसे बंधन में बंधकर रहना मुझे स्वीकार नहीं है।

अन्तत: परिवार को ही परिमल के तर्क के सम्मुख झुकना पड़ा, मां ने अपने पुत्र के चेहरे पर ओज देखकर वंशवृद्घि के मोह से मुख मोड़ लिया। पिता की नजर में बेटा क्रांतिकारी विचारधारा का वाहक बन चुका था, सो बेटे से बहस न करना ही उनकी विवशता बन गई तथा बिना बच्चों की किलकारी सुने ही पिता संसार से कूच कर गए। कत्र्तव्य के प्रति समर्पण की विवशता ने परिमल को चुप्पी साधे ही दु:ख सहन करने की सामथ्र्य प्रदान की।

घर के अकेले चिराग परिमल ने अधिकाधिक अध्ययन को ही जीवन का ध्येय वाक्य बना लिया। दिनोंदिन पुस्तकों के प्रति उनका अनुराग बढऩे लगा। उपाधियां उनके ज्ञान के सम्मुख बौनी प्रतीत होने लगीं। रसायन विज्ञान में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने के उपरांत ही उनकी योग्यता से प्रभावित होकर उन्हें स्नातकोत्तर महाविद्यालय में प्रवक्ता पद पर नियुक्ति प्रदान कर दी गई। इसी पद पर रहते हुए उन्होंने अध्ययन जारी रखा, रसायन विज्ञान में ही शोध अध्ययन करके विद्या वाचस्पति की उपाधि प्राप्त की, उसके उपरांत तो जैसे वह उपाधियों से बहुत ऊपर बढ़ गए, चार विषयों में विद्या वाचस्पति की उपाधि प्राप्त की। अन्तिम उपाधि हिन्दी साहित्य में प्राप्त की, विज्ञान के विद्यार्थी के लिए यह उपाधि नि:संदेह किसी बड़ी उपलब्धि से कम न थी। इन उपलब्धियों से भी परिमल सन्तुष्टï नहीं हुए, निरंतर अध्ययनशील रहते हुए अपनी सेवानिवृत्ति तक उपाधियों से ही अपनी झोली भरते रहे।

‘एक दिवस प्रात: मैं कॉलिज जाने के लिए तैयार हुआ ही था, कि प्रोफेसर परिमल आ गए, वह सेवानिवृत्त हो चुके थे, सो समाज सेवा में ही रमे थे। मुझसे बोले- निजी शिक्षा संस्थान से बी.एड कराने में कितना धन व्यय होता है?’

मैंने सहज ही पूछ लिया- ‘गुरुदेव आपके अपनी कोई सन्तान नहीं है, फिर किसके लिए यह सब पूछ रहे हैं?’

वह मुस्कराए- ‘तुम सच कहते हो, मगर एक बात ध्यान रखना जिसकी अपनी कोई सन्तान नहीं होती, उसकी सन्तानें ही समाज में सर्वाधिक होती हैं।‘

‘मैं कुछ समझा नहीं, आपका अभिप्राय काफी खतरनाक प्रतीत होता है।‘ मैंने शंकित दृष्टि से उनकी ओर देखा।

वह खिलखिलाकर हंस पड़े- ‘व्यक्ति की संकीर्ण सोच ही उसे बड़ा नहीं बनने देती। मेरा अभिप्राय मात्र यही था कि जिसकी कोई सगी औलाद नहीं होती वह समाज की सन्तानों को अपनी सन्तान समझने लगता है।‘

‘उफ्फ…कितना गलत था मैं..

‘कोई बात नहीं…एक गरीब खत्री परिवार है। पिता फेरी लगाकर दुकानों पर बिस्कुट व सप्लाई करता है। परिवार में तीन बेटियां हैं बड़ी बिटिया ने प्रथम श्रेणी से बी.ए. उत्तीर्ण किया है, बी.एड कम्पीटीशन दिया था, मैरिट में न आ सकी। विचारता हूं निजी संस्थान से ही बी.एड करा दूं।‘ गम्भीरतापूर्वक कहा प्रोफेसर परिमल ने।

‘निजी संस्थानों से बी.एड करने का अर्थ है अपनी खाल नुचवाना। पहले तो एडमिशन ही मनमाने दामों पर देंगे उसके बाद साल भर तक किसी न किसी बहाने से उगाही करते रहेंगे।‘ मैंने निजी संस्थानों के संदर्भ में राय व्यक्त की।

फिर भी उस बेटी का कल्याण तो कराना ही है। प्रोफेसर परिमल जैसे किसी भी प्रकार उसे बी.एड कराना चाहते थे।

‘मगर खर्चा कहां से आएगा?’मैंने शंका व्यक्त की।

‘समाज में दानदाताओं की कमी नहीं है। धन यदि किसी की भलाई में खर्च किया जाना हो तथा सुपात्र व्यक्ति माध्यम बने, तो कोई कारण नहीं कि धन उपलब्ध न हो।‘ प्रोफेसर परिमल की आंखों में चमक थी।

‘सो तो आप ठीक कहते हैं मगर चंदाखोर चोरों ने सही और गलत की परिभाषा ही बदलकर रख दी है।‘

‘यह आपका मानना हो सकता है, मेरा नहीं। किसी को बार-बार धोखा नहीं दिया जा सकता। आज भी समाज में वही टिकता है, जो विश्वसनीय होता है, जिसकी पारदर्शिता किसी से छिपी नहीं होती स्वयं को पारदर्शी बनाइए, फिर देखिए आत्मबल कैसे समाज में आपकी विशिष्टï पहचान बनाता है। प्रोफेसर परिमल बोले।‘

मैंने उन्हें किसी अच्छे संस्थान में उस बिटिया का प्रवेश कराने का आश्वासन दिया। लौटते हुए मुझसे कहने लगे- ‘यदि आपके परिवार में कोई बच्चा नाईंथ क्लास में आया हो, तो एक महीने के लिए मेरे पास नियमित भेज दिया करें। रसायन के सूत्र इस प्रकार समझा दूंगा कि जीवन भर नहीं भूलेगा।‘

‘क्या अब आप छोटी क्लॉस के बच्चों को भी ट्ïयूशन देने लगे।‘

नहीं ट्यूशन नहीं गाइडेंस। वह भी नि:शुल्क बेफिक्र रहिए किसी भी बच्चे को मेरे पास पढऩे भेजेंगे तो एक पाई तक नहीं लूंगा।‘ वह मुस्कराए।

‘अजीब आदमी है भौतिक युग में जब कोई बिना पैसे कोई कार्य करने को तैयार नहीं है। ट्यूशन के नाम पर महंगी दुकानें जगह-जगह सजी हुई हैं।

शिक्षक  अपनी शिक्षा की मनमानी कीमत वसूल रहा है वहां प्रोफेसर परिमल जैसे भी लोग हैं जो घर फूंक तमाशा देखकर शिक्षा बांट रहे हैं। अरे, किसी को पढ़ाओगे तो बैठने की व्यवस्था भी करोगे, पानी-बिजली की व्यवस्था भी करोगे अपना समय भी बर्बाद करोगे।‘ मैं मन ही मन कह गया। प्रोफेसर परिमल लौट चुके थे। उनसे अनेक बार चाय का आग्रह किया गया था, जिसे उन्होंने अस्वीकार कर पानी का गिलास मात्र ही स्वीकार किया था। तिस पर भी टिप्पणी कर दी थी ‘शरीर को भौतिक पदार्थों के  प्रति इतना आसक्त मत बनाइए कि वह तुम पर हावी हो जाएं, सो नियमित खान-पान और दिनचर्या ही शरीर के लिए अनिवार्य है।‘

उनके लौटते ही पत्नी बोली- ‘जी आप भी कैसे-कैसे लोगों को पास बैठा लेते हैं यह किसी विभाग में चपरासी था क्या?’

‘तुम भी धोखा खा गई। ये वह आदर्श पुरुष हैं जिनकी शैक्षिक उपलब्धियां बड़े-बड़े शिक्षाविदों को भी पानी भरने हेतु विवश कर देती है। आज के दौर में जब व्यक्ति पी.एचडी उपाधि प्राप्त करके स्वयं की गर्दन टेढ़ी कर लेता है। ये चार विषयों में पी.एचडी हैं और आज शोध क्षेत्र में इनका इतना बड़ा कार्य है कि किसी भी विषय का शोध ग्रंथ तैयार करा सकते हैं। चूंकि मैं प्रोफेसर परिमल की विद्वता से पूर्व परिचित था, सो मैंने पत्नी को समझाया, पत्नी भी दांतों तले अंगुली दबाए बिना न रह सकी।

अवस्था में प्रोफेसर परिमल सत्तर बरस पार कर चुके थे। मुझे ज्ञात था कि जिस समय महाविद्यालय में सेवारत थे उस समय उनकी योग्यता एवं शैक्षिक उपलब्धियों के आधार पर विदेशों से भी अनेक आमंत्रण उन्हें प्राप्त हुए कि विदेश में रहकर खासे वेतन पर कार्य करें तथा अपनी योग्यता का लाभ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहुंचाएं, किन्तु विदेश जाने का मोह कभी उनके भीतर न पनप सका। भारतीय विचारधारा और स्वदेश प्रेम ने अपनी ही धरती से हर पल जुड़े रहने का लगाव उनके मन में समाहित किया हुआ था।

इतना अवश्य उन्होंने अपने जीवन में किया था कि देह सुख की खातिर धन व्यय करने से बचते रहे, साधारण किन्तु शरीर को आराम पहुंचाने वाले परिधान ही उन्हें भाए। शीत ऋतु में बंद गले का गांधी आश्रम से खरीदा हुआ कोट और गर्म पेन्ट तथा घर में मां के हाथों की बुनी जर्सी ही अनेक बरसों तक उनका साथ निभाती रही तथा ग्रीष्म में आधी बाजू की सामान्य बुशर्ट और सामान्य पेंट ही उनके शरीर का साथ निभाती रही। यह परिधान महाविद्यालय के सेवाकाल में उनकी सादगी का संदेश छात्रों को देता रहा, तिस पर भी विषय ज्ञान पर उनकी पकड़ इतनी मजबूत थी, कि रसायन विज्ञान की सूक्ष्म से सूक्ष्म जिज्ञासा चुटकी भर में शांत कर देते।

महाविद्यालय से सेवानिवृत्त होते ही उन्होंने सादगी को पूर्णरूपेण आत्मसात कर लिया। पेन्ट के स्थान पर लट्ठे का पायजामा तथा पूरे बाजू की कमीज को उन्होंने अपना लिया, रोज-रोज चेहरा चिकना रखने के चक्कर में भी कभी नहीं पड़े। सप्ताह में दो बार घर में ही बैठकर दाढ़ी खुरच लेना तथा अपने हाथों से ही कपड़े धोकर बिना सलवटें दूर किए कपड़े पहन लेना उनकी आदत में सम्मिलित हो गया। तिस पर भी उनकी पासबुक में धन की मात्रा सीमित ही रही। पेंशन राशि भी उन्होंने ढंग से अपने ऊपर खर्च नहीं की, पूरा जीवन ही जैसे समाज के प्रति समर्पित कर दिया था, अपने खानदानी परिवार को कभी उन्होंने फूटी कौड़ी भी नहीं दी। अपना धन समाज के निर्धन बच्चों की शिक्षा व्यवस्था पर ही खर्च करते रहे। मैंने अनेक बार कहा भी- गुरुजी समाज में अपना एक स्टेटस बनाकर रहो, आपके साथियों ने शिक्षा और अर्थ के समन्वय से कितनी भौतिक समृद्घि प्राप्त की है, आप जानते हैं, किन्तु आपने उनके मुकाबले अपने आपको कहां खड़ा पाया है?

बदले में प्रोफेसर परिमल ने प्रति प्रश्न किया था- ‘समृद्घि की परिभाषा क्या है जानते हो, क्या भौतिक समृद्घि ही सब कुछ है, जिस समृद्घि से आत्मसंतुष्टि न मिले, उसे समृद्घि किस आधार पर कहा जाए। रहा स्टेटस का सवाल जिस ढंग से रहने में मुझे

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