निक्षण आलिंगन की चाह नहीं,
पर ज्यों ज्यों तुझ संग नेह बढ़ी।
अब लग भी जाओ सुन अंक सखे,
प्रभु ने तुझको मेरे लिए गढ़ी।
तुझे ही हिय ने बोलो क्यों चुना,
क्या सोचा तुमने है कभी प्रिये।
पुष्प तो बाग़ में कई हैं खिले,
परिजात ही मात के शीश चढ़ी।
मेरी धमनी मेरी सांसों में,
रचती बसती सदा तुम ही सखी।
जब भी पलके अपनी बंद करूँ,
आँखों में छवि तेरी ही सखी।
अर्पित कर डाला है खुद को भी,
तेरे नेह यज्ञ की वेदी पर।
आ भर लेना अब तू बाँहों में,
निक्षण आलिंगन स्वीकार सखी|
– सविता सिंह मीरा, जमशेदपुर