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आस्था का प्रतीक-सिद्धपीठ कालीमठ – विनोद कुमार गोयल एडवोकेट

neerajtimes.com – सिद्धपीठ कालीमठ गढ़वाल के जिला रुद्रपुर में ग्राम गुप्तकाशी से 15 किलोमीटर दूरी पर सरस्वती नदी के दायें तट पर त्रिकोणीय भमि में 4500 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। यह प्रसिद्ध तीर्थस्थल रुद्रपुर से केदारनाथ को जाने वाले मोटर मार्ग पर स्थित है। गुप्तकाशी से अनेक रास्तों द्वारा कालीमठ तक पहुंचा जा सकता है। नारायण कोटि से 5 किलोमीटर दूर व जुरानी से 4 किलोमीटर का पैदल का रास्ता तय करके भी कालीमठ पहुंचा जा सकता है। बाहर से आने वाले तीर्थ यात्रियों के लिये यहां सभी सुविधायें उपलब्ध हैं।

इस सिद्धपीठ की प्रसिद्धि दैवीय शक्तियों के तीन मंदिरों से है। महाकाली मंदिर, महालक्ष्मी मंदिर व महासरस्वती मंदिर। यही वह सिद्धपीठ है जहां तीनों महाशक्ति एक साथ रहती है। तथा भक्तों द्वारा जैसी भी मन्नतें मांगी जाती हैं वह पूरी होती हैं।

बताया जाता है कि भगवान शिव ने रक्तबीज का संहार करने के लिए महाकाली का सृजन किया था। इस बारे में प्रसिद्ध है कि रक्तबीज को मारने पर उसके रक्त की एक बूंद से पुन: रक्तबीज पैदा होता जाता था तथा उत्पात मचाता था। तब महाकाली ने रक्तबीज का संहार करके उसके खून की बूंदों को अपनी जीभ पर ले लिया था तभी रक्तबीज का संहार संभव हो सका। रक्तबीज के संहार के बाद उस समय  महाकाली बहुत क्रोधित हो गयी थीं। उन्हें जो भी रास्ते में मिला उसका संहार कर देती। तब देवताओं की प्रार्थना पर भगवान शिव, संहार करती महाकाली के रास्ते में लेट गये उसी समय महाकाली का पैर भगवान शिव पर पड़ा तब वह बहुत शर्मिंदा हुई उन्होंने भगवान शिव से क्षमा मांगते हुए वहीं समाधि ले ली। इससे पूर्व महासरस्वती व महालक्ष्मी ने उन्हें समझाने का बहुत प्रयास किया था परंतु वे नहीं मानीं तब महासरस्वती  व महालक्ष्मी ने कहा कि इस सिद्ध पीठ पर जो भी मन्नत मांगेगा वह फलीभूत होगी।

महालक्ष्मी मंदिर के प्रवेश द्वार पर पंचदेव की मूर्ति, गणेश और त्रिशूल के दर्शन होते हैं। महालक्ष्मी की मूर्ति जो गर्भगृह में हैं धातु से निर्मित विशाल मूर्ति है। गर्भगृह गहराई पर होने के कारण एक दीपक वहां हर समय प्रकाशित रहता है, उसी प्रकाश में दृष्टि स्थिर करने पर माता के दिव्य दर्शन होते हैं। यहां पर ब्रह्मा जी की एक नहीं दो-दो मूर्तियां बनाई गयी हैं। ऐसा कहा जाता है कि जब वर्षा कम होती है तो ब्रह्मा जी की मूर्ति को उठाकर बाहर यज्ञ कुण्ड पर रखने से पानी बरसता है।

महालक्ष्मी मंदिर के मुख्य द्वार के सामने एक विशाल यज्ञ कुण्ड है। जब कभी महामाया दिवारा जाती है तो इस यज्ञ कुण्ड पर ग्राम देवशाल के आचार्यों की देखरेख में यज्ञ कराया जाता है। इस यज्ञ को सम्पन्न कराने में ग्राम कालीमठब्यूडी, कबिल्ठा, कुणजेठी, जग्गी, बगवान, बेडुला आदि के भक्तों द्वारा सहयोग किया जाता है।

जनश्रुति है कि महालक्ष्मी जी की मूर्ति के पीछे स्फटिक शिवलिंग है। काली महात्म्य में लिखा है कि इस लिंग के पास पवित्र जल है जिसके पीने से अमरत्व की प्राप्ति होती है। महालक्ष्मी मंदिर के दक्षिण द्वार के बाहर आते समय बायें हाथ की ओर लगभग डेढ फुट लंबे एवं आठ इंच चौड़े हल्के हरे रंग के पत्थर पर अठारह पंक्तियों का एक अपठ्नीय शिलालेख भी उत्कीर्ण है, जिसके नीचे का कुछ भाग टूटा हुआ है। इसी के ठीक सामने गौरी शंकर एवं महासरस्वती के मंदिर हैं। गौरी शंकर जी की मूर्ति प्राचीन काल की है।

नारायण कोटि के मंदिर समूहों में भगवान लक्ष्मीनारायण की मूर्ति, महामहेश्वर धाम में अष्टभुजा दुर्गा की मूर्तियां कला की दृष्टि से उत्कृष्ठ कलाकृतियां है जो गढवाल क्षेत्र के शिल्पियों द्वारा निर्मित है। महासरस्वती मंदिर में काले पत्थर की अष्टभुजा सरस्वती की मूर्ति के हाथों में खडग़, धनुष, त्रिशूल, भाला, बर्छा, माला, तलवार, नागपाश एवं गदा सुशोभित है।

महासरस्वती मंदिर के दाहिनी ओर भगवान महासिद्धेवर का लिंग स्थापित है।  महाकाली के मंदिर के गर्भगृह के ऊपर ताम्रपात्रों का आच्छादन है जो काफी पुराना है। फर्श के बीच में कुण्डी है। मान्यता है कि रक्तबीज के वध के बाद मां काली यहां अपना सिर काट कर समाधिस्थ हो गई थीं। कुण्डी की ऊपरी सफाई का अधिकार व्यूंखी ग्रामवासियों को है। गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर घंटों की मालाएं हैं। प्रवेश के बाईं ओर एक विशाल खांडा रखा है। मंदिर में तीन पुजारी नियुक्त हैं। मंदिर में पहले पांच मन का भोग लगता था यह भोग पुजारी स्वयं तैयार करता था। पहले भोग की व्यवस्था बारी-बारी से कविठा गूंठ ग्राम में बसे भवासों को करनी पड़ती थी।

प्रत्यक्षदर्शी इस किवदंती को सत्य मानते हैं कि कालरात्रि के दिन जिस पर देवी का रूप आता है वह नदीके बीच गड़े हुए विशाल पत्थर पर मशाल फैंकता है। मशालके गिरते ही पत्थर से खून निकलने लगता है। जो थोड़ी देर बाद स्वयं बंद हो जाता है। इस मंदिर में प्रसाद के रूप में भभूत दी जाती है जो रोग नाशक होती है।

इस मंदिर में अर्धनारीश्वर की दिव्य मूर्ति, नंदीगण, नागराजा, श्रृंगी-भृंगी एवं भगवान आशुतोष के साथ पार्वती को भी विराजमान दिखाया गया है। यहां एक मंतगशिला भी है जिस पर बैठ कर मतंग ऋषि ने तप किया था। ऊपर महाभैरव का मंदिर है। महाभैरव हाथ में दण्ड लेकर हर समय काली क्षेत्र की रक्षा करते हैं।

यदि कभी दोनों मंदिरों में से एक मंदिर की अग्नि बुझ जाती है तो दूसरे मंदिर से अग्रि वेदमंत्रों से अभिमंत्रित कर ताम्रपात्र में सिर पर रखकर गाजे-बाजों के साथ लाकर पुन: स्थापित की जाती है। इस अग्नि को धनरजय अग्नि कहा जाता है। आस्था के प्रतीक इस सिद्धपीठ पर नवरात्रि के अवसर पर मेले जैसा माहौल रहता है। दूर-दूर से श्रद्धालु यहां अपनी मन्नतें मांगने, हेतु माता के चरणों में अपना सिर नवाते हैं। (विभूति फीचर्स)

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