चुनौती से कभी क्या आदमी का हर्ष घटता है ।
हमारी जिंदगी का इस तरह हर वर्ष कटता है ।
सियासी वार भी बंदूक की गोली सरीखे हैं ,
चुनावी दौर में हर कौम का मित मर्ष बटता है ।
कभी कश्मीर में देखो कभी बंगाल में देखो ,
लहू की छींट से इस देश का उत्कर्ष छटता है ।
मकां की नींव तो हमने कभी हिलती नहीं देखी ,
कभी दीवार गिरती है कभी ये फर्श फटता है ।
भले ही रोज आते हो गले मिलने सखा दोनो ,
उजाले से अँधेरे का कभी क्या कर्ष पटता है ।
जिसे पागल हवाएं रोज आती हैं बुझाने को ,
नहीं तूफान सम्मुख दीप का संघर्ष हटता है ।
कभी भी आँख से देखा नहीं सच मानना “हलधर”,
विचारों के झरोखों से हमेशा दर्श सटता है ।
– जसवीर सिंह हलधर, देहरादून