सामाजिक प्राणी है मानव,
नहीं अकेला रह सकता।
साथ किसी का जब पाता है,
सुख का वह अनुभव करता।
साथ-साथ चलते रहने से,
अनजाने अपने बनते।
सुख-दुख अपना कह सुनकर जन,
व्यथा खुशी बाँटा करते।
कभी-कभी ऐसा भी होता,
साथी हमराही बनते।
साथ – साथ चलते – चलते ही ,
मीत हृदय के हैं मिलते।
अनजानीं राहें जीवन कीं,
हमें करिश्मे दिखलातीं।
शुभचिंतक सहयोगी जन से,
चलते – चलते मिलवातीं।
— मधु शुक्ला, सतना, मध्यप्रदेश