करती है जो मेहनत को मंजिल भी वो पाई है,
हिम्मत से ही जिसने की अब बहुत पढ़ाई है।
यादो मे तेरी हम भी डूबे हैं बड़े अब तो,
माशूक की यादो से कब मिलती रिहाई है।
डूबे है तेरी मस्ती मे अब तो उतरने को,
इन महकी फिजाओं ने फिर याद दिलाई है।
जीते रहे हैं हम भी तो शर्म के परदे मे,
कुछ वक्त गुजारे हम भी इसमे भलाई है।
मर जायेगें गर हम तो खोजेगी निगाहें भी,
सोचोगे पिया तुम भी क्यो वक्त गँवाई है।
– रीता गुलाटी ऋतंभरा, चंडीगढ़