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दो बदन – अनुराधा पाण्डेय

रंच सुधि भी नहीं है उन्हें अन्य की….

दो बदन प्रीत में इस तरह खो गये ।

 

यों लगे कोटि पतझार पहले रहे ।

बाद आया विरल आज मधुमास है ।

एक युग की अमा कट गयी सी लगे ,

चांद निकला अभी शुभ्र आकाश है ।

यों लगे ज्यों सिमट कर सकल प्रेम धन –

मानवी देह धरकर प्रकट हो‌ गये ।

दो बदन प्रीत में इस —

 

काट कर चिर विरह की अकथ रात को,

आ मिलें द्वय अचानक मिलन छांव में ।

द्वार तोरण सजे चंदनी सांस के ,

गान मंगल बजे है हृदय गांव में ।

चिह्न सारे व्यथा के तिरोहित हुए ,

जब परस्पर लिपट अश्रु से धो गये ।

दो बदन प्रीत में इस–

 

धड़कनों में उठे तीव्र आरोह थे ,

कर रहे थे मदन कांत रति व्यंजना ।

थे अधर पर धरे मद अधर इस तरह,

भाव विस्तार थी पा रही रंजना ।

लग रहा था युगल काम आगार में…

बिन किये बंद दृग पार्श्व में सो गये ।

रंच सुधि भी नहीं है उन्हें अन्य की,

दो बदन प्रीत में इस तरह खो गये

– अनुराधा पाण्डेय, द्वारिका, दिल्ली

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