सफरी जिनगी गोता खाये, नैन पुतरिया का मटकाई।
नित अभाव में जीना मरना, घुटघुट के जीवन बीताईं।।
जेने जाईं ठोकर खाईं,
दुखड़ा दिल के कहना पाईं।
दुनिया लागेला अनजाना,
कइसे आपन दरद बताईं।
दूर दूर ना दिखे किनारा, राह अकेले भटकत जाईं।
नित अभाव में जीना मरना, घुटघुट के जीवन बीताईं।।
लइका झेलत बा बेकारी,
घरनी के लेलस बेमारी।
बाप-मतारी,कबले ढ़ोई,
बिन पाई के जीयल भारी।
राम भरोसे आज गुजारा, घटत उमरिया जाता भाई।
नित अभाव में जीना मरना, घुटघुट के जीवन बीताईं।।
घरके खरचा बोझा भारी,
रोजे सोंची बइठ दुआरी।
हाल लागे हारल जुआरी,
कहवाँ जाके हाँथ पसारी।
रोज रोज के एके रोना, कुछो मांगला में सकुचाई।
नित अभाव में जीना मरना, घुटघुट के जीवन बीताईं।।
लीहल करजा केंग उतारी,
एनेओने माथा मारी।
के पूछेला का लाचारी।
आफत बीपत कइसे टारीं।
हरतरफ घनघोर अंधेरा, राह चलत रोजे भरमाई।
नित अभाव में जीना मरना, घुटघुट के जीवन बीताईं।।
जिनगी के खींचेनी गाड़ी,
भार भइल नेवता हकारी
कीनेके बा धोती साड़ी
भेजब बबुआ के ससुरारी।
कइसे बेड़ा पार लगी अब, सोंच सोंच हरदिन अगुताई।
नित अभाव में जीना मरना, घुटघुट के जीवन बीताईं।।
– अनिरुद्ध कुमार सिंह, धनबाद, झारखंड