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वह गुलाब – रेखा मित्तल

खिलता गुलाब

वह खिलता गुलाब

जो तुम अक्सर मेरे लिए

लाया करते थे

जब हम दोस्त बने थे,

पता नहीं कैसे तुमसे कर लेती थी

सब अपने सुख-दुख साँझे

भीड़ में बस तुम ही अपने से लगे,

बोलती रहती बिना सोचे कि

तुम सुनना चाह भी रहो हो या नही

पर तुमने कभी प्रतिकार भी नहीं किया,

शायद एक तुम ही थे

जो समझते थे मेरी मन की व्यथा

आज बहुत अकेली हो गई हूँ मैं,

ऐसा नहीं, कोई नहीं है मेरे पास

कहने को भरा-पूरा परिवार हैं

बस नहीं हैं ऐसा कोई अपना

जिससे कह पाऊँ अपने मन की

कँधे पर जिसके थोड़ा रो सकूँ,

कर पाऊँ अपने मन को हल्का

जो बोझ बरसों से लिए घूम रही हूँ

चलते चलते अब थक गई हूँ

इस भीड़ में कहीं खो गई हूँ,

नहीं उठाया जाता बोझ

अब सबकी अपेक्षाओं का

चाहती हूँ कोई मुझे भी समझे,

मेरे मन की तहों में लावा-सा घुल रहा

दहकते उर में कोई शीतल बयार सा

मुझे सहलाए, मरहम लगाए,

मन मेरा चंचल सा उड़ना चाहता हैं

उन्मुक्त गगन में विचरना जानता हैं

चाहती हूँ कोई मेरा अपना

ले आए आज भी मेरे लिए

वह खिलता गुलाब,

ले जाए बाँह पकड़ मुझे उस गगन में

जिसकी हैं मुझे बरसों से तलाश!

– रेखा मित्तल, चण्डीगढ़

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