मनोरंजन

मेरी कलम से – मीनू कौशिक “तेजस्विनी”

ये  बैरागी  मन  अपना  भी , राग-रंग  में  कब  रमता  है ।

दुनिया  की  बेदर्द  महफ़िलें, ज़ख्मी ज़श्न कहाँ जमता है ।

दोस्त क़रीबी  सब समझाते , कुछ तो  सीखो दुनियादारी !

पागल दिल किसकी सुनता है ,चढ़ी है जाने कौन खुमारी।

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है  अजब-सी  कशमकश  कि ,क्या  भला  है  क्या  बुरा ।

है  अच्छाई  पर  टिका ,  कहते  हैं  धरती   का  धुरा ।

पर  नज़र  के  सामने ,  नेकी   तो  दिखती  त्रस्त  है ,

ऐश    करती   है   बुराई   हक   गरीबों  का   चुरा ।

✍. मीनू कौशिक “तेजस्विनी”, दिल्ली

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