ये बैरागी मन अपना भी , राग-रंग में कब रमता है ।
दुनिया की बेदर्द महफ़िलें, ज़ख्मी ज़श्न कहाँ जमता है ।
दोस्त क़रीबी सब समझाते , कुछ तो सीखो दुनियादारी !
पागल दिल किसकी सुनता है ,चढ़ी है जाने कौन खुमारी।
<>
है अजब-सी कशमकश कि ,क्या भला है क्या बुरा ।
है अच्छाई पर टिका , कहते हैं धरती का धुरा ।
पर नज़र के सामने , नेकी तो दिखती त्रस्त है ,
ऐश करती है बुराई हक गरीबों का चुरा ।
✍. मीनू कौशिक “तेजस्विनी”, दिल्ली