झिज्याउन आउने फुर्सदिलाहरूको लर्को कति,
विना तुकका कुराले फुलबुट्टा भर्नेको झर्को कति !
देखाउँछन् बनावटी पारा नजिकिन हिरिक्क भई,
टपर्टुइयाँको फँट्याइँलाई ढाक्ने काम्ले बर्को कति !
चोरलाई शूली, साधुलाई चौतारो भन्ने गर्थे बडाले,
जमाना उल्टिएछ, यहाँ त चोरकै स्वर चर्को कति !
पुरा गर्न नपाएपछि रहर, कुरा काट्ने रहेछन् दुष्टहरू
यता भने हमेसा घाँटी खस्खसाएर पर्ने सर्को कति !
सत्यमा अडिन गाह्रो छ, त्यसैको गला रेट्नै सजिलो
सुकिला कपडामाथि लगाउने दागको छर्को कति !
हिंदी –
फुरसत की लड़ाई क्या है जो हटाने आते हैं,
बिना जुदाई के फूल का गिरना कितना खिलता है!
वे नकली पारा को हिरिक के रूप में दिखाते हैं,
टेपरटुयन को ढकने का काम कितना है !
बुजुर्ग चोर को शूली, साधु को होशियार कहते थे,
जमाना बदल गया है यहाँ चोर की आवाज इतनी तेज है !
जब अपनी इच्छा पूरी नहीं कर पाते हैं, तो दुष्ट लोग बात करेंगे,
यहां, कितनी परिस्थितियाँ हैं जो हमेशा गले से नीचे गिर जाती हैं!
सच पर अडिग रहना मुश्किल है, गला काटना आसान है।
सूखे कपड़ों पर दाग का छिडकाव कितना होता है?
– दुर्गा किरण तिवारी, पोखरा,काठमांडू , नेपाल