माना मैं ख़ामोश रहा पर, तुम भी तो कुछ बोल न पाए ।
मंचों पर चढ़ गए चुटकुले , दो पग आगे डोल न पाए ।।
वाणी का वरदान मिला था , तुम साहित्यक महा रथी थे।
मुक्त छंद के मकड़जाल को , लाए कुछ साहित्य पथी थे ।
अपने सिद्ध पीठ से उठकर ,उनकी राह टटोल न पाए ।।
बहुत सरल होता है कविवर ,ऊंची ऊंची बात बनाना ।
लेकिन काम कठिन भाई , महाकव्य साहित्य सजाना ।
छंदों का संहार हुआ जब,क्यों अपना मुँह खोल न पाए ।।
सच है इस खींचा तानी में , टूटे हिंदी महल कंगूरे ।
कविता हुई बंदरिया इनकी , मंचो पर छा गए जमूरे ।
मैं तो छंदों में बंदी था ,तुम भी तो कुछ तोल न पाए ।।
सच है दौड़ नहीं पाए हम , रुपयों की आपा -धापी में ।
सम्मानों के वितरण में भी, झोल हुआ नापा -नापी में ।
चाटुकारिता के शर्बत में , “हलधर”क्यों विष घोल न पाए ।।4
माना मैं ख़ामोश रहा पर ,तुब भी तो कुछ बोल न पाए ।।
– जसवीर सिंह हलधर , देहरादून