पनप रहा है बीच हमारे, भाव परायेपन का,
सूख रहा विश्वास विटप नित, हरे भरे आँगन का।
संबधों की जड़ें भरोसे , का जल चाह रहीं हैं,
प्यास बुझे इनकी तो निखरे,रूप सदन उपवन का।
स्वार्थ, अहम का बीज न रोपें, अपनेपन को सींचें,
माँग समय की पहचानें हम, मोह तजें अब धन का।
सुखी रहें परिवार सभी तो, प्रेम एकता पनपे,
रामराज्य का स्वप्न पूर्ण हो, जाये जन गण मन का।
नहीं असंभव जग में कुछ भी, यदि मानव मन ठाने,
नहीं लक्ष्य से आँख हटाये, दमन करे अड़चन का।
सृष्टि सृजन का सार यही है, मानवता यश पाये,
रूप सतत नित रहे निखरता,अपने जग कानन का।
— मधु शुक्ला, सतना, मध्यप्रदेश