(1)”जि “, जिद हो गर जीने की यहां
तो, फिर अंग मायने नहीं रखते !
जैसा भी मिला है शरीर यहां पर…..,
उसमें हम ख़ुश बने रह सकते !!
(2)”जी “, जीने की यदि हो अदम्य चाह
तो, कैसे भी यहां जीया जा सकता !
बस, होनी चाहिए मन में जिजीविषा…..,
फिर हरेक असंभव, संभव बन जाता !!
(3)”वि “, विश्वास हो जिसका अपने ईश्वर पर
वह कभी हार यहां नहीं सकता !
बस, बढ़ता चले पूरे मनोयोग से यहां……,
तो,सफल होने से कोई रोक नहीं सकता !!
(4)”षा “, षाड़व है मनोराग इस जीवन की
और जिजीविषा है जीने की एक कला !
जो इसमें हो जाए यहां पारंगत……,
वह सदा जीतते ज़िन्दगी में है चला !!
(5)”जिजीविषा”, है जिसकी जितनी यहां ज्यादा
वह सदा जीवन में चले पाए सफलता !
और कभी पीछे मुड़के नहीं देखे…..,
बस, मंज़िल पे ही पहुंचकर दम लेता !!
सुनील गुप्ता (सुनीलानंद), जयपुर, राजस्थान