उसने कभी देखा नहीं रोता हुआ आकर मुझे ।
मैं देवता माना उसे वो मानता चाकर मुझे ।
पागल बनाया है मुझे कविता सरीखे रोग ने ,
ये रोग होगा शांत मेरा एक दिन खाकर मुझे ।
जिस रात से बचता रहा वो रात आख़िर आ गई ,
ये जिंदगी डरने लगी तूफान में लाकर मुझे ।
अपनी ज़मीं को पूजकर रिश्ता बनाया चांद से ,
कुछ लोग घबराने लगे हैं चांद पर पाकर मुझे ।
बिकती नहीं कविता यहां बिकने लगे हैं चुटकुले,
कुछ भी नहीं हासिल हुआ है छंद में गाकर मुझे ।
ऐसा करूं क्या काम जो ये भूख मंचों की मिटे ,
उपहास छंदों का दिखा है मंच पर जाकर मुझे ।
कुछ शब्द मैं पीता रहा कुछ अर्थ मुझको खा गए ,
हालात अब पीने लगे हैं रोज पिघलाकर मुझे ।
“हलधर” ग़ज़ल कहने लगा है तल्ख़ है उसकी ज़बा ,
साहित्य के कुछ नामधारी मौन धमकाकर मुझे ।
– जसवीर सिंह हलधर, देहरादून