दो पाटों की इस चक्की में, क्या दानों को ही पिसना है ।
दोनों का दर्द समझ बाबा , पाटों को भी तो घिसना है ।।
दानों को दो दिन जीना है ,कुछ विधा भाग्य में ऐसी है ।
जो सिला सिला पर घूम रही ,जानो तो तबियत कैसी है ।।
ये तो मौसम की बेला हैं ,वो पाषाणों के वंशज हैं ।
ये नया रूप धर आएंगे ,उनको को कण कण रिसना है ।।
दोनों का दर्द समझ बाबा ,पाटों को भी तो घिसना है ।।1।।
इनमें भी कुछ बच जाएंगे ,जो कील सहारे पाएंगे ।
जो सबसे पहले छिटकेंगे, वो पहले मारे जायेंगे ।।
मत सोच समय को खोटा कर ,मत अपने मन को छोटा कर ।
अब देख हथौड़ी छैनी से ,पाटों को भी तो छितना है ।।
दोनों का दर्द समझ बाबा ,पाटों को भी तो घिसना है ।।2।।
हम सबके जीवन में भी तो ,कुछ ऐसी घड़ियाँ आती हैं ।
रिश्तों के इस सिलबट्टे पर , सब नेक नियति घिस जाती हैं ।।
हम को महसूस नहीं होता , सिल बट्टे अपने होते हैं ।
संबंधों की इस भट्टी में, सब धीरे धीरे फुकना है ।।
दोनों का दर्द समझ बाबा ,पाटों को भी तो घिसना है ।।3।।
पिछले जन्मों में हमने भी , कर्म शेष छोड़े होंगे ।
किस किस के दिल तोड़े होंगे, तीरों से दृग फोड़े होंगे ।।
पाषाण बने जो सदियों से ,पाटों का दोष बता बाबा ।
हलधर “ज्यादा अब क्या लिखना ,जीवन सारा मृग तृष्णा है ।।
दोनों का दर्द समझ बाबा ,पाटों को भी तो घिसना है ।।4।।
– जसवीर सिंह हलधर, देहरादून