मेरे ज्वर से तपते सिर पर,
नेहिल तलहथियों की थपकी ।
काश ! निशा भर भी दे पाते
बैठे-बैठे तुम सिरहाने।
अपने टूटे- फूटे स्वर में,
कुछ तो वैदिक मंत्र सुनाते ।
भींगे पट को क्षण-क्षण भर में
मेरे सिर पर धरते जाते ।
लगते वो स्पर्श मुझे प्रिय!..
कम से कम जाने पहचाने ।
बैठे-बैठे तुम सिरहाने ।
कुछ तो हो जाते बलशाली,
इस क्रम में सारे तप साधन ।
साथ तुम्हारा पाते यदि तो
होते स्तव औ आराधन ।
बन जाते वे तीर्थ सरीखे…
क्षण मथुरा काशी अनजाने ।
बैठे-बैठे तुम सिरहाने।
– अनुराधा पाण्डेय, द्वारिका, दिल्ली