याद जब आती है यादें, कुछ भी कहने नहीं देती,
मुसलसल साथ रहती है तन्हा रहने नहीं देती।
याद करते – करते हो जाती है आँखे अश्के-बार,
पलके संभालती आँसूं आँख से बहने नहीं देती।
जख्मे-दर्द-ए-दिल जब कभी हद से बढ़ जाता है,
यादें तुम्हारी दर्दे-दिल कुछ भी कहने नहीं देती।
पलक झपकी बह गए जागती आँखों से ख्वाब,
मगर यादें तेरी वो ख्वाबे-मंज़र ढ़हने नहीं देती।
तुमसे अलैहदा होंगे बेशक तन्हा हो गया निराश,
पर चाहत तेरी हाथ गैर का कभी गहने नहीं देती।
– विनोद निराश, देहरादून