मनोरंजन

मन की जब गांठें खुल जाएं – ज्योत्स्ना जोशी

मन की जब गांठें खुल जाएं

भोर तिमिर से छट कर आए

संशय के अनसुलझे धागे

अपना अपना शिरा निहारें

तब ये अविराम कितना

शाश्वत है।

 

वक्त तह में  खुलता जाए

तुम मुझमें हो या मैं तुम में हूं

या सांसों का अनकहा बंधन

इस निर्लिप्त भाव में तब मेरा

हिस्सा कितना विस्तृत है।

 

अधरों की चुप्पी का सम्मोहन

अन्तर्मन की गूंज सुनाए

सरिता के दो छोरों की अकुलाहट

अंकुश के संस्कार निभाएं

रिश्तों के आरोह अवरोह में

एक दूजे में विलय का अर्णव

कितना गहरा है ।

 

माला के एक एक मोती को पिरोना

उस धागे की निष्ठा समझे

तुमसे मेरा प्रेम कुछ आगे का आकार

मेरे मन का आकाश थांमे

अब कैसी छटपटाहट जब

तृषा तृष्णा का आंचल स्वप्निल आंखों

में संचय हो जाए

फिर परछाई को अपनाना कितना सरल है।

– ज्योत्स्ना जोशी , चमोली , उत्तरकाशी, उत्तराखंड

Related posts

गजल : रीता गुलाटी

newsadmin

अन्नदाता किसान – अशोक यादव

newsadmin

गीतिका – मधु शुक्ला

newsadmin

Leave a Comment