गिरी बूदें धरा पर फिर, घनन-घन मेघ घहराया।
सजाने तब चुनर धानी, कृषक खेतों उतर आया।।
हृदय में हर्ष की रेखा, सने सिर पाव कीचड़ में ।
भविष्य उन्नत छिपा अपना, कृषक के उद्यमी जड़ में।।
इन्हीं मजबूत कंधों पर, हमारा हिंद हर्षाया।
सजाने तब चुनर धानी, कृषक खेतों उतर आया।।
करें वे कर्म जब अपना , लगे वो ईश को ध्याते।
सतत रत मेहनत में भी, सुरों का साज फैलाते।।
मधुर मन मोहती कजरी, सुहावन राग जब गाया।।
सजाने तब चुनर धानी, कृषक खेतों उतर आया ।।
बढ़ाएं मान धरती का, ललक बस एक ही उनकी।
बने सिरमौर भारत का , अटल कृषि कर्म के धुन की।।
यही मा भारती के सुत, यही संस्कार की काया।
सजाने तब चुनर धानी , कृषक खेतों उतर आया।।
– प्रियदर्शिनी पुष्पा, जमशेदपुर , झारखंड