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ग़ज़ल – झरना माथुर

देख के हम उन्हें बेजुवां हो गए,

बिन कहे दर्द मेरे बयां हो गए।

 

फासले दरमियां इस तरह से बड़े,

और मेरे सनम बेवफ़ा हो गए ।

 

साथ हैं वो मिरे ये यकीं था मुझे,

क्यों वफ़ा के अजब से गुमां हो गए।

 

ख्वाहिशों के नगर जो बसाये जरा,

दूर मुझसे मेरे ही  मकाँ हो गए।

 

ये शहर अजनबी सा मुझे अब लगे,

रंग इसमें सियासी  रवाँ हो गए ।

 

जो मिली जिंदगी जी लिया बस उसे,

गुल खुशी के मेरे वो गिरां हो गए

 

ढूंढती हूं बहारों भरी मंजिले,

हौसले आज “झरना” जवां  हो गए।

गिरां – बहुमूल्य

– झरना माथुर, देहरादून , उत्तराखंड

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