गाँव गली की धूल फांककर बड़ा हुआ है ।
तुफानो के शूल झेलकर खड़ा हुआ है ।।
तपते शोलों की लपटों के बीच पला है ।
समय समय पर सत्ताओं ने खूब छला है ।।
अब तक नहीं मरा जो मौसम की मारों से ।
संसद की मारों से घायल पड़ा हुआ है ।।
तुफानो के शूल झेलकर खड़ा हुआ है ।।1।।
पथरीली राहों पर देखो रोज चला है ।
जूते पाँव नहीं है नंगे पाँव जला है ।।
सरकारों ने रौंदा तोडा और मरोड़ा ।
धरापूत फिर भी खेतों में अड़ा हुआ है ।।
तूफानों के शूल झेलकर खड़ा हुआ है ।।2।।
गेंहू की बाली में दाना कब आयेगा ।
मंडी में दानों से पैसा कब पायेगा ।।
कब आयेगी कानों की बाली बेटी की ।
प्रश्न लचीला नहीं लोह सा कड़ा हुआ है ।।
तूफानों के शूल झेलकर खड़ा हुआ है ।।3।।
कर्जे का दानव कब तक उसको खायेगा ।
उसका बेटा ही लड़ने सरहद जायेगा ।।
हलधर “प्रश्न पूछता है सत्ताधीशों से ।
किसने दोष भाग्य में उसके जड़ा हुआ है ।।
तूफानों के शूल झेलकर खड़ा हुआ है ।।4।।
– जसवीर सिंह हलधर , देहरादून