पूछ रहा मन क्यों करता है, सावन इतना शोर।
झूले क्यों पड़ते सावन में, क्यों नचता है मोर।
आफत बरसाता है बादल, घर में करता बंद।
काम काज के हेतु मनुज को, अवसर मिलते चंद।
सड़कों, गलियों घर द्वारों में, कीच घुसे घनघोर – – -।
जीव जन्तु सब तज देते हैं, अपने – अपने ठाँव।
डर के साये में जीते हैं , जाने कितने गाँव।
पानी में डूबी वसुधा का, नजर न आता छोर – – -।
सावन मे खुश रह सकते हैं, मात्र धनी ही लोग।
दुनियादारी जिन्हें न छेड़े, सम्मुख रहते भोग।
सावन तब सुखदाई हो जब , प्रगटे समता भोर – – -।
— मधु शुक्ला, सतना, मध्यप्रदेश