जहाँ दिखे हैं ,साथ दिखे हैं ।
तितली ,बादल,और सुमन तुम !
धरणी- सा मैं दौड़ा करता
नित दिन गति से क्षितिज छोर तक ।
अंत हीन है दूरी लेकिन ,
पहुँच न पाया मिलन मोड़ तक ।
भूल गया लघु अपनी सीमा…
मैं भू रज हूँ और गगन तुम !
जहाँ दिखे हैं साथ दिखे हैं।
तितली,बादल और सुमन तुम !
स्वप्न भले हो किन्तु हृदय से
चाहूँ मैं तुमको अवधारूं ।
ज्ञात नहीं कैसे मयंक को,
किन्तु व्योम से आन उतारूँ।
साँसों का हूँ मैं लघु कंपन …
और सनातन गुरु जीवन तुम !
जहाँ दिखे हैं,साथ दिखे हैं,
तितली,बादल और सुमन तुम !
कुछ भी हो पर मूक नयन से,
इतना तो मैं कह ही सकता ।
शलभ बना तो प्रणय शिखा में,
मृत्यु छोर तक दह ही सकता ।
मेरे इस लघु मृण्मय घट में –
तन भर मेरा पर धड़कन तुम !
जहाँ दिखे हैं,साथ दिखे हैं,
तितली,बादल और सुमन तुम !
– अनुराधा पाण्डेय, द्वारिका , दिल्ली