न जाने कितनी ही ऐसी कविताएं हैं
जिनका पूरा होना रह गया
बेचैन रातों में कभी ज़ेहन में उतरी होंगी,
उस लम्हे की ज़ेहनियत से
आधा वाक़िफ आधा अनजान
शब्दों से जूझती हुई धीमे-धीमे
उठ रहे दर्द की भांति रह गयी
चंद आड़े तिरछे शब्दों के साथ
बहुत सी पीड़ाओं को कोई ध्वनि प्राप्त नहीं होती,
वो प्राप्त और अप्राप्य
की खींचतान में आंखों से देखते-ही-देखते
ओझल होकर
उस अंतहीन छटपटाहट का हिस्सा हैं
जो उकेरी जानी थी ठहराव के कागज़ पर,
या यूं भी कहूं कि संवाद हमेशा
सम्प्रेषित नहीं होता
या ये कि जब होना हो तब तो
संगदिल कहीं से लौट ही आता है
और फिर अपने रेशों में गुथने को
विवश हो जाता है,
अपने होने के मात्र इस परिचय में शेष
अबोली “अधूरी कविताएं”।
– ज्योत्स्ना जोशी, देहरादून, उत्तराखंड