चले जा रहे आँखें मूँदें ,
अपनी-अपनी धुन में राही ।
फुरसत किसके पास यहाँ है ,
पूछे दिल की बात हमारी ।
ये बैरागी मन अपना भी ,
राग-रंग में कब रमता है ।
दुनिया की बेदर्द महफिलें,
ज़ख्मी ज़श्न कहाँ जमता है ।
दोस्त करीबी सब समझाते,
दुनिया का दस्तूर यही है ।
रौंदो-कुचलो आगे निकलो ,
शिखर पे है जो वही सही है ।
तुम भी अपनी आँखें मूँदो ,
मत देखो वो जो भी अशुभ है ।
यह कटता है वह मरता है ,
छोडो़ इसमें भी क्या शुभ है ।
तुम अपने जीवन को जी लो,
नहीं मिलेगा यह दोबारा ।
जिस पर जो गुजरे वो झेले ,
उसमें क्या है काम तुम्हारा ।
पत्थर से क्यों टकराती हो ,
कुछ तो सीखो दुनियादारी ।
पागल दिल किसकी सुनता है ,
चढी़ है जाने कौन खुमारी ।
-मीनू कौशिक (तेजस्विनी), दिल्ली