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गीत – जसवीर सिंह हलधर, देहरादून

मिट्टी का घर कांप रहा है ,पानी ढो ढो थके पनारे ।

तीखी वर्षा के हमलों से, रोते पाये छान उसारे।।

 

दुश्मन दिखती तेज हवाएं ,बरखा अब दहसत फैलाये ।

नदी क्षेत्र में गांव हमारा ,खाना रसद कहां से आये।

धरती पर पानी ही पानी ,डूबे  गांव गली चौबारे ।।

मिट्टी का घर कांप रहा है,पानी ढो ढो थके पनारे ।।1

 

रूह कांपती देख देख कर , आले खिड़की सब गीले हैं ।

अंदर तक बौछारें आयी,गद्दे बिस्तर सब शीले हैं ।

बस्ती खुद से पूंछ रही है ,आन बसे क्यों नदी किनारे ।।

मिट्टी का घर कांप रहा है, पानी ढो ढो थके पनारे ।।2

 

चारा डूब गया पानी में , गैया , बकरी  सब भूखी हैं ।

कैसे भोजन पके आज का ,लकड़ी पास नहीं सूखी हैं ।

बूढ़ी अम्मा कोश रही है,रुठ गए क्या राम हमारे ।।

मिट्टी का घर कांप रहा है ,पानी ढो ढो थके पनारे ।।3

 

लाजो कैसे लाज बचाये ,भीगे वस्त्र सुखा ना पाये ।

अंग दीखते बेचारी के ,कैसे अपना बदन छुपाये ।

लल्ला तेज बुखार चढ़ा है , कैसे जाएं डाक्टर द्वारे ।।

मिट्टी का घर कांप रहा है ,पानी ढो ढो थके पनारे ।।4

 

पानी घुसा तबेले में भी ,पेशानी पर चढ़ा पसीना ।

ताबड़ तोड़ हुई बरखा ने , तोड़ दिया है कच्चा जीना ।

राहत नहीं मिली सरकारी, फसे हुए हैं पशु बिन चारे ।।

मिट्टी का घर कांप रहा है ,पानी ढो ढो थके पनारे ।।5

 

काले काले मेघ डारावें , बिजरी गरज गरज दहलाये ।

नेता अधिकारी गायब हैं ,कोई अपने पास न आये ।

ऊपर वाले की करनी को ,किसकी हिम्मत कौन नकारे ।।

मिट्टी का घर कांप रहा है पानी ढो ढो थके पनारे ।।6

 

हरियाली जगती में आई, माना धरती ने धन पाया ।

महलों पर  क्या बोझ पड़ा है , झोपड़ियों ने मोल चुकाया ।

हलधर “सदा गरीबों को ही ,ऊपर वाला क्यों ललकारे ।।

मिट्टी का घर कांप रहा है ,पानी ढो ढो थके पनारे ।।7

– जसवीर सिंह हलधर, देहरादून

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