आँखे अश्कों से धो के निकला हूँ,
उसकी गली से हो के निकला हूँ।
हो गए अल्हैदा हालते-ग़ुरबत में,
मैं हाले-नसीब पे रो के निकला हूँ।
खता हुई इश्क कर बैठे बेवफा से,
आज जाना क्या खो के निकला हूँ।
कितने हसीँ लम्हे थे मुहब्बत के,
पर ख्वाबे-चश्म धो के निकला हूँ।
गीली आँखों से झरते ख्वाब देख,
कच्ची नीँद से सो के निकला हूँ।
आख़िर तन्हा रहा निराश तो क्या,
बेक़राई का बीज बो के निकला हूँ।
– विनोद निराश, देहरादून