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लू एक भीषण गर्मी – अशोक यादव

आकाश से आग बरसा रहा है सूरज।

गुस्सा शांत करो,सुन लो मेरी अरज।।

 

झुलस रहे हैं निरीह सभी जीव-जंतु।

राहगीर हुए मूर्छित, तड़प रहे आगन्तु।।

 

तेजपुंज से पीघल रहा है हाड़-मांस।

भूगर्भिक प्राणी की रुक रही है साँस।।

 

सूख चुकी है नदी,चिलचिलाती धूप में।

लू बन कर आया है काल के रूप में।।

 

गर्म हवाएँ पी लेती है बादल का पानी।

जाने कहाँ अदृश्य हो गई बरखा रानी?

 

प्यारी पक्षियों के घोंसले से धुआँ उड़े।

फूल और पत्तियाँ जली पेड़ों से जुड़े।।

 

दानव बन बैठा है जंगल की दावानल।

निगल रहा जीवधारियों को पल-पल।।

 

पहियों के टायर में विस्फोट हुआ बम।

गगन में उड़े मानव,आवाज आई धम।।

 

जख्मी पड़ा सपाट सड़क दर्द में परेशान।

डामर की चमड़ी अब जा रही शमशान।।

 

धरती माँ आँचल पसार माँग रही वरदान।

हे प्रभु! अब तो पानी बरसा दो भगवान।।

– अशोक कुमार यादव मुंगेली, छत्तीसगढ़

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