कितना पड़ता है विष पीना, मुझसे आकर पूछो…..
यों तो जग के ताप-तपन सह, हँसकर मैं जी लेती ।
होता तू यदि साथ निमिष भर ,घाव सभी सी लेती ।
कैसे लेकिन तुझ बिन जीना,
मुझसे आकर पूछो…..
कितना पड़ता है विष पीना….मुझसे आकर…
रिक्त दृगों से निपट अकेले ,देखूँ शून्य गगन में ।
क्या बतलाऊँ तुझ बिन प्रियवर! कितनी पीर चुभन में।
कितना होता छलनी सीना, मुझसे आकर पूछो…..
कितना पड़ता है विष पीना….मुझसे आकर…
मेह बरसते सावन के जब,शूलों-जैसे लगते ।
पारिजात भी प्रिय ! कदली के,फूलों-जैसे लगते ।
तुझ बिन कितना विकल महीना ,
मुझसे आकर पूछो……
कितना पड़ता है विष पीना,मुझसे आकर पूछो….
– अनुराधा पाण्डेय, द्वारिका, दिल्ली