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इहाँ चलेला ना मनमानी – अनिरुद्ध कुमार

जब जब जागी, हे प्रभु रागी,

कौने ओरी, जीवन लागी।

धूमिल चादर, लागल दागी,

मन भटकेला, दहके आगी।

 

असमंजस में जीवन काटीं,

दुख-सुख आपन कासे बांटीं।

काके छोड़ीं, काके साटी,

लागत बा सब माटी माटी।

 

लोग कहेला साठा, पाठा,

ठठरी लागेला कदकाठी।

तन-मन लहके जेंगा भाठा,

एक सहारा हाँथें लाठी।

 

लोभी मनके बइठल थूरीं,

सूतल जागल खटिया तूँरीं।

दूर बइठ दुनिया के घूरीं,

बढ़ल जात बा जगसे दूरी।

 

मन तरसेला काटीं खूरी,

चंचल मन ई कहाँ सबूरी।

जबजब सोंचीं माथा झूरी,

का बोलीं आपन मजबूरी।

 

सबके चाहीं गाड़ल थाती,

कब केहू होला संहाती।

व्याकुल तड़पेनीं दिनराती,

देखीं सबके आती जाती।

 

कइसन दुनिया के परिपाटी,

मतलब से जग पोटी पाटी।

समय बजावे आपन घांटी,

लागत बा छाती अब फाटी।

 

हर जिनगी के एक कहानी,

जबले प्राण आँख में पानी।

आन बान लागे सब झूठा,

इहाँ चलेला ना मनमानी।

– अनिरुद्ध कुमार सिंह

धनबाद, झारखंड

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