कभी दरिया के किनारे अकेले चलूँ
अपने काँधों पर तेरे हाथों का स्पर्श महसूस न करूँ
नर्म रेत पर बैठकर
लहरों में
तेरी बनती-बिगड़ती तस्वीर न निहारूँ
और
दरिया की रवानी से
तेरे लिए दुआ न मांगूँ……
ऐसा कैसे हो सकता है?
जुदाई के रेगिस्तान से गुज़रूँ
और
आँखों में बेक़रारी की रेत न चुभे…
पैरों में कोई भी मुहब्बत का छाला न पड़े…
दिल में मिलन की तड़प न उठे
ऐसा कैसे हो सकता है?
मुहब्बत का राज़ हवाओं से कहें
बेशक ख़ामोश रहें
हवायें वो राज़ पेड़ों को न बताएं…
सरगोशियाँ न करें
बात जंगल में न फैले…
ऐसा कैसे हो सकता है?
कभी महके-महके अमलतास के फूलों के पास
हम तुम बैठे हों बहुत देर तक उदास
बिखरी तन्हाई यह न पूछें उदास क्यूँ हो
और ढलती शाम के साये
यह न पूछें – ‘घर क्यों नहीं जाते’
ऐसा कैसे हो सकता है?
जब भी कोई कविता पढ़ूँ
या फिर लिखूँ….और सोचूँ
जहाँ कहीं
तेरे नाम का पहला शब्द आये
ठिठुर न जाऊँ,बिफुर न जाऊँ
तुझे अपने क़रीब न पाऊँ
और तेरे ख़्यालों में डूब न जाऊँ
ऐसा कैसे हो सकता है?
बंद कर लूँ घर के किवाड़ सभी
आँगन पे तान लूँ रेशमी चादर भी
शाम होते ही अचानक
स्मृतियों के बादलों की तेज़ फुहारें
भिगोयें न मेरे मन की खिड़कियों के झीने-झीने पर्दे
ऐसा कैसे हो सकता है?
हरे-भरे पहाड़ों पर
ऊँचे उड़ते पंछियों और चलते बादलों को देखूँ
कल्पनाओं के पंख लगाकर
दूर जाती हवाओं का आँचल पकड़कर
‘फ़लक’ को छूने की तमन्ना न जागे…
ऐसा कैसे हो सकता है?
– डॉ जसप्रीत कौर फ़लक, लुधियाना , पंजाब