रउओ जीहीं, हमहूँ जीहीं,
एमें कौनों उजुर सरकार।
इक दूजा के बनी सहारा,
जिंदगी में सबके दरकार।
रउये मालिक मानीं राजा,
भूख पियास हमार संसार।
रखब ख्याल हमनी गरीब के,
चिरौरी बा हमरो अधिकार।
हाथ जोड़ रोज गोहराई,
बोलीं कबले सहीं फटकार।
रउये सहपर जिंदा बानी,
वरना जियलो रहे बेकार।
समता चाहीं बोल न पाई,
जेंगा रखीं बावें स्वीकार।
के बूझे हमरी लाचारी,
गरीबी लागे लिखल लिलार।
मुहदूबर के कहाँ पूछ बा,
बिन रोये के देला आहार।
छौ पाँच के खेल बा सगरे,
उलट फेर से सबे लाचार।
हमरो दिन लौटी हे मालिक,
जन करीं जादे अत्याचार।
नया जमाना अपना धुन में,
इक दिन मिट जाई अंधकार।
– अनिरुद्ध कुमार सिंह
धनबाद, झारखंड