आज बादल कुछ ऐसे बरसे,
मानो बरसों से दफन पडे,
मन के एहसासों के माफिक,
स्नेहिल स्पर्श मिलते ही उमड़ पड़े।
भिगो दिया तन और मन को,
मानो अनकहा सा कह रहे हो,
ज्यों मन की गागर भर जाने पर,
मनोभावों का लावा फूट पड़ा हो।
तन शीतल मन शीतल,
तपती धरा का,भीगता अंतर्मन,
बरसते बादल व्यक्त करते व्यथा,
रवि मेघ करे संघर्ष सारा दिन।
कुछ तृप्त कुछ अतृप्त संवेदनाएं,
व्यक्त हो रही नभ और धरा की,
दिशाएं भी गुंजित हो बनी साक्षी,
उन्मुक्त तटिनी अभिसार करे जलधि से!
– रेखा मित्तल, सेक्टर-43, चण्डीगढ़