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ग़ज़ल – मधु शुक्ला

सभी को एक दूजे से बनी रहती शिकायत है,

यही दस्तूर दुनियाँ का बड़ी बेदर्द आदत है।

 

न विधि ने भेद उपजाया मनुज ने बाँट ली दुनियाँ,

सबल के हाथ से होता रहा कमजोर आहत है।

 

वफा सब चाहते हक से ककहरा खुद नहीं जानें,

नहीं जो देखती खुद को बड़ी बेकार उल्फत है।

 

कहीं  पर  गैर  अपने  हैं कहीं  अपने पराये से,

कोई पत्थर की मूरत है किसी पत्थर में मूरत है।

 

सभी अवगुण समेंटे हैं न कोई देवता जग में,

सुधारे ‘मधु’ न हम खुद को हुई बदनाम तुहमत है।

— मधु शुक्ला, सतना , मध्यप्रदेश

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