स्वर्ण-कलम से ईश्वर जब भी,
लिखता है तकदीरों को,
भाग्य-मुद्रिका में मढ़ देता ,
“अनुराधा” से हीरों को।
जीवन के गहरे सागर में,
कुछ ही मणियाँ मिलती हैं,
इन मणियों के आ जाने से,
सब शुभ-घड़ियाँ मिलती हैं।
आज वही शुभ-घड़ी खड़ी है,
उर अंतस आनंदित है,
मुदित मोर मन नांच रहा है,
रोम-रोम अति पुलकित है।
नहीं मात्र आवरण भव्य है,
सुघड़ अंतरण पाया है,
सूर्य तेज ने अक्षर-अक्षर,
भाव-भाव चमकाया है।
आज शक्ति के उसी अंश का,
वसुधा प्रादुर्भाव हुआ,
सच्चे मित्र हेतु कितनों का,
पूरा तत्क्षण ख्वाब हुआ।
लिखें वर्तिका कविताएं पर,
विफल कोशिशें जाएंगी,
वाणी की दुहिता को कैसे,
यह वर्णित कर पाएंगी।
मेरे मन की शुभ-इच्छा है,
कदम कदम पर श्रृंग मिलें,
जीवन इंद्रधनुष सा कर दें,
सब खुशियों के रंग मिलें।
प्रभु से विनती क्षय कर डालें,
दुःख के खरपतवारों को,
मन के उपवन में स्थापित,
कर दें सदा बहारों को।
हर्षित पुल्कित परिवारी हों,
आजीवन धन-धान्य रहे,
वैतरणी निर्विघ्न सुखों की,
सर्व-काल शुभ मान्य रहे।
शायद पिछले शुभ कर्मों का,
यह मुझको उपहार मिला,
मैंने पाया मीत आपसा,
ईश्वर से उपकार मिला।
सुनो,सुनो हाँ सुनो सखे अब,
मुझे बधाई दे डालो,
तुमसे फीकी, किन्तु चलेगी,
चलो मिठाई दे डालो।
– भूपेन्द्र राघव, खुर्जा , उत्तर प्रदेश