हरदम रहते बिखरे बिखरे, माला बनने से कतराते।
रंगों में डूबे सपने क्यों, जनता के हाथ नहीं आते।
दौलत की जहाँ बहुलता हो, डेरा बैचैनी का रहता।
संतोष जहाँ पर बसर करे, वह सदन अभावों को सहता।
क्यों सुख सुविधा का बँटवारा , समता से ईश न कर पाते….. ।
रंगों में डूबे सपने क्यों, जनता के हाथ नहीं आते…… ।
क्यों लोकतंत्र में राजा की,किस्मत उलझाई जाती है।
सेवक के हाथ रेवड़ी की, गठरी पकड़ाई जाती है।
दाता का हाल निहार नही, लज्जा से सेवक मर जाते।
रंगों में डूबे सपने क्यों, जनता के हाथ नहीं आते…….. ।
मतदाता दानी बन लुटता, चाकर का पेट पनपता है।
भारत माता के आँचल में, अन्याय बेधड़क पलता है।
भेद मंत्र को उच्चारित कर ,रक्षक बन भक्षक मुस्काते।
रंगों में डूबे सपने क्यों, जनता के हाथ नहीं आते…… ।
— मधु शुक्ला, सतना, मध्यप्रदेश