एक दिन जब मेरा मन यूँ ही था उदास,
अकेली ही थी और कोई नहीं था पास।
तब अनंत ब्रम्हाण्ड की ओर गई मेरी दृष्टि,
लगा शायद पुकार रही मुझे ये समस्त सृष्टि।
आँचल में लिए असंख्य चमकते हुए सितारे,
कोई दिव्यान्गना आ बैठी थी मेरे किनारे।
अत्यंत स्नेहिल भाव से देख मुझे वो बोली,
प्रिये! तुम सच में लगती हो बड़ी ही भोली।
क्या स्त्री की आंखों में भी आसूँ भरे होते हैं?
क्या शक्ति स्वरूपा के नयन भी कभी रोते हैं?
मैनें कहा हाँ, इस धरती पर तो यही होता है,
गलती किसी की भी हो नारी का ही मन रोता है।
प्रकृति स्वरूपा है स्त्री,पालक,पोषक व जननी,
फिर क्यों कोई कर जाता है उसका ह्रदय छलनी।
त्याग ,समर्पण,सेवा की बलिवेदी पर लिए कसक,
सुख,सौभाग्य,सुमंगल हेतु बनी रहती है उपासक।
फिर क्यों सदा होता ये अनर्थ नारी के ही साथ?
विवशता से क्यों बंधे होते हैं उसी के हाथ ?
सहती सदा ही वो क्यों पीड़ा और अत्याचार?
क्यों नहीं कर पाती कभी अन्याय का प्रतिकार?
सृष्टि बोली,स्त्री में प्रकृति के सभी गुण हैं समाहित,
क्षमा,प्रेम की प्रतिमूर्ति बन वो भूले अपना भी हित।
यही धर्म-कर्म उसका,है यही उसका संस्कार,
एक सूत्र में बाँध रखे, वो अपना सारा घर संसार ।
व्यर्थ है बातें पुरुष से समानता और अधिकार की,
स्त्री स्वयं में परिपूर्ण चाह क्यों उसे प्रेम,सत्कार की।
वो है शिव की शक्ति,ब्रम्ह की हर आकृति और रूप,
स्त्री यदि चाहे तो समेट सकती जीवन की हर छाँव-धूप।
मन की शांति व खुशी का केवल स्वयं ही से होगा भान
इतना मुझे कह, वो दिव्यान्गना हो गई थी अंतर्धान।
– प्रीति यादव, इंदौर, मध्यप्रदेश