मैं राह भूला भीड़ में पथ गूंजते वीरान में ।
लाशें गवाही दे रहीं जीवन दफ़न शमशान में ।
वैभव सभी करते नमन क्या याचना देती शरण ,
घायल परिंदे रो रहे उजड़े हुए उद्यान में ।
मैं दर्द को धुनता रहा इन पत्थरों के शहर में ,
आँसू अगर बिकते यहाँ होता बहुत धनवान मैं ।
अपने पराये हम सफ़र अब देखते मुँह फेरकर ,
अपनी हदों में कैद हूँ परिणाम से अनजान मैं ।
हर प्यास से परिचित हुआ हर भूख से वाकिफ़ हुआ ,
सबका वरण करता मरण इस बात से हैरान मैं ।
आए मदारी मंच पर कविता बदरिया हो गई ,
कवि कीमती पोशाक में कविता फटे परिधान में ।
किससे कहूं अब दर्द ये किसको सुनाऊं हाल ए दिल,
नुकसान “हलधर” को हुआ इस सत्य के अभियान में ।।
– जसवीर सिंह हलधर, देहरादून