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अंतर्मन की व्यथा – प्रीति यादव

शायद कुछ तो अधूरी रह गई है एक  प्यास,

अंतर्मन की  गहराईयों में छुपी है कोई आस।

निश्चय ही अभाव नहीं कोई,तनिक भी किंचित,

हैं सर्व सुख-साधन जीवन जीने हेतु निश्चिंत।

परंतु कुछ तो मुझमें अधूरा सा होता है प्रतीत,

जिसकी चाह में ‘मन’भूला वर्तमान और अतीत।

पर हृदय करना नहीं चाहता व्यर्थ का प्रलाप,

जीवन से मैं सुखी,संतुष्ट हूँ ये भी है आलाप ।

दृष्टि जाती है जब उस अनंत आकाश की ओर,

दिखता नहीं जिसका कोई ओर ना कोई छोर।

ऐसा ही है ‘मन’ भी, अनंत और बड़ा ही विस्तृत ,

हो नहीं पाता वस्तुतः कभी भी ये सम्पूर्ण तृप्त।

केवल ये मेरी नहीं, हर मनुष्य की है यही कथा,

प्राप्य में संतुष्टी नहीं,अप्राप्य के चाह की व्यथा।

होना अनुभव, स्वयं की अपूर्णता का प्रतिपल,

दे एकाकीपन, शांत हृदय में भर जाता हलचल।

सरल,सहज,शांत होने का वो असीम प्रयत्न

बस उस अनंत शून्य में समा जाने का है यत्न।

जिसे आप मोक्ष कहें या परमात्मा में होना लीन,

वह बस शून्य है शून्य,जिसमें कोई क्यों हो तल्लीन।

जड़,चेतन,भाव, भावना से रिक्त होकर भी,

क्या मिलेगा अन्य में अपना सर्वस्व खोकर भी।

अन्तर्मन में  तब भी होगा अनंत,असीम एकांत,

वहाँ भी एक ही दशा में होना कर देगा अशांत।

– प्रीति यादव, इंदौर, मध्यप्रदेश

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