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विरह – श्रीराम मौर्या

प्रेम की…

सुंदरता का बखान…

सभी करते हैं…

इसकी उदारता…

इसकी महत्त्वता…

इसकी सरलता…

इसकी विशेषता…

इसकी आवश्यकता…

इसका अनुभव…

इसका विवरण…

इसका समर्पण…

इसका संयोग…

इसका संजोग…

परन्तु इसकी_पीड़ा…

इसके विरह…

इसकी कठोरता…

इसकी अस्थिरता…

इसके बिखराव…

इसकी असंतुष्टि…

इसकी वेदना…

इसके कष्ट…

की कोई बात नहीं करना चाहता…

जबकि यह ही…

एक समय में आकर…

आपके जीवन पर…

सर्वाधिक प्रभाव छोड़ते हैं…

प्रेम जितना आकर्षित और…

सुंदर दर्शित होता है…

उतना ही पीड़ादायक और…

विवश भी करने वाला भी…

तो यही प्रेम ही तो है…

जैसे उसका जाना…

मुझे इतना ख़ाली कर गया…

जैसे कि कोई उल्का पिंड…

पृथ्वी पर गिरकर…

इसके समन्दर को सुखा देता है…

वैसे ही प्रेम की पीड़ा का…

वह उल्का पिंड…

मेरे मन के संसार पर गिरकर…

इससे प्रेम रस हिन बन गया…

इतना नीरस कि…

अब तो किसी के आने-जाने का…

अंतर पड़ना ही बंद हो गया ॥

– श्रीराम मौर्या,  मुंबई,  महाराष्ट्र

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