घाव दिल के अब छिपाने हम लगे है,
इस तरह से मुस्कुराने हम लगे है।
ज़ख्म से जो ज़ख्म की यारी हुई तो,
दर्द उंगली को गिनाने हम लगे है।
ठोकरों में वक्त की रानाइयां (सुंदरता) थी,
उन रूठों को अब मनाने हम लगे है।
हाफ़िजा का अंजुमन दिल में बसा है,
आंख में काजल लगाने हम लगे है।
उलझनों की भीड़ मे हम खो गये,
बस अक्स से खुद को मिलाने हम लगे है।
वो कभी था ही नही मेरा यकीं था,
कागज़ी रिश्ते निभाने हम लगे है।
काश झरना हमसफर मिलता हमें भी
यूं अकेले घुटघुटाने हम लगे है।
– झरना माथुर, देहरादून , उत्तराखंड