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ग़ज़ल – ऋतु गुलाटी

जुबां मीठी जहर भीतर छुपी है।

भले नफरत जमाने से की सी है।

 

न होना दूर नभ से चाँद मेरे।

अजी फैली जमीं पर चाँदनी है।

 

मुहब्बत आज दिखती ही नही जहां मे।

यहां इंसानियत अब खो गयी है।

 

कमी अहसास की हमको दिखे अब।

यहां गैरत अजी अब  खो गयी है।

 

लबो से हट गयी है अब खुशी भी।

परेशाँ हो गयी अब जिंदगी है।

 

भरी है ख्वाहिशों से बन नदी *ऋतु।

हँसी फिर भी नसीबों से दबी है।

ऋतु गुलाटी ऋतंभरा, मोहाली , पंजाब

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