कभी कभी प्रश्न ये उठता है कि,
कवि खूबसूरत होता है या उसकी कविता।
अन्तर्मन के अनेको द्वन्द्वो के बाद ,
जाने क्यूँ बात बेमुददआ सी रह जाती है।
सच तो ये है कि कविता ही खूबसूरत होती है ,
कवि खूबसूरत नहीं होता,
हाँ उसकी लेखनी खूबसूरत होती है,
जिसे वो तुलिका बना विभिन रंगो से कविता को सहेजता है।
कवि सदैव अपनी कविताओं को,
श्रृंगारित नारी तुल्य बनाने के लिए प्रयासरत रहता है ,
वो अपने ह्रदय की गहराइयों से,
उर भावो को लेकर पाठक के सम्मुख परोसता है।
अपनी कविता को जीवंत करने की लिए कवि,
कविता में वो सब समाहित करता है जो कविता चाहती है ,
वो किरदार में कभी बच्चा बन शरारत करता है ,
तो कभी अधेड़,बन परिपक्वता दर्शाता है।
कभी वो सतरंगी स्वप्न देखता है ,
तो कभी बेशुमार ख्वाब सजाता है ,
कभी इंद्रधनुषी पंख लगा कल्पनाओ के आकाश में उड़ने लगता है ,
तो कभी उम्रदराज़ हो ज़िम्मेदारियों के बोझ तले दब के रह जाता है।
वो हमेशा कुछ खोने के भय से आशंकित ,
और पाने का अशेष अभिलाषाएं संजोये,
कभी वो प्रेमाग्नि में जलता है ,
तो कभी विरहाग्नि उसे झुलसाती रहती है।
विरह, वेदना, कुढ़न, क्रंदन, रूदाद समेटे हुए,
और पीड़ाओं से भरा एकाकी जीवन लिए ,
घोर निराशा में पनपती अशेष आशाये संजोये ,
श्रृंगार-वियोग के संगम में निराश मन फसा रहता है।
जाने क्यूँ लगता है कवि कभी भी,
कविता से ज्यादा खूबसूरत नहीं होता,
मगर ये भी सच है कि कविता से ज्यादा खूबसूरत,
वो पाठक होता है जिसको कविता से अनुराग हो जाता है।
– विनोद निराश, देहरादून