लाजमी आज लगे गैरत से तर होना,
सब जरूरी समझे आँखों में डर होना।
जिंदगी खेल नहीं दौड़ गुजर जाओगे
दो कदम राह चलो झेलो बाहर होना।
सुबह से शाम तलक बेचैनी और तड़प
झेलते थाम जिगर लोग दरबदर होना।
ढ़ूंढ़ता चैन सकूं आज जमाना दर दर
कौन चाहे डरके साये में घर होना।
बुत बने देख रहें जीवन का अफसाना
दिल जलाये हरदम नफरत घरघर होना
जख्म नासूर बने तड़पाये अकसरहां,
लोग की चाह सदा कोई रहबर होना।
देखता रोज खड़ा बोल न पाता है’अनि’,
नासमझ क्या जाने घात कहाँ पर होना।
– अनिरुद्ध कुमार सिंह, धनबाद, झारखंड