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ग़ज़ल हिंदी – जसवीर सिंह हलधर

ज़िंदगी जिंदादिली है क्या नुमाइश क्या हिज़ाब ।

कौन जाने कब कहां पर मौत कर दे बे-नकाब ।

 

चार दिन की ज़िंदगी है बात को समझो जनाब ।

हाथ में अब आपके बेकार हो या कामयाब ।

 

हो गए बर्बाद सारे जो कभी थे खुश मिज़ाज,

दिलफ़रेबी को भुलाने रोज़ पीते हैं शराब ।

 

चूड़ियों का नाद मानो बज रही हो जल तरंग ,

हर अदा में दिख रहा है हुस्न का जलवे शबाब ।

 

ज़ुल्फ थी काली घटा सी और आंखें थी कमान ,

पंखुरी से होंठ उसके और चेहरा था गुलाब ।

 

हम अनाड़ी पढ़ नहीं पाए थे आंखों की ज़बान,

इस तरह हमने गवा दी आतिशी की वो किताब ।

 

आज भी बेदार हैं कुछ दिलफ़रेबी के निशान ,

घाव कितने क्या गिनाएं और क्या देवें हिसाब ।

 

हुस्न ने ख़ुद दी दलीलें ,इश्क ने भेजा पयाम ,

इसलिए “हलधर” कहे हैं शे’र इतने लाज़वाब ।

– जसवीर सिंह हलधर, देहरादून

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