शिला सी मैं पड़ी पथ पर,पथिक के ठोकरों में थी ।
जरूरत ही तुझे क्या थी,मुझे ईश्वर बनाने की ?
न कोई अर्हता मुझमें,न कोई कामना ही थी ।
झुकाए जग मुझे मस्तक,न ऐसी भावना ही थी ।
बताओ ! क्या हुआ तुझको ,यहाँ तक ले मुझे आए –
तुझे थी क्या पड़ी लघु दीप को दिनकर बताने की ?
जरूरत ही तुझे क्या थी…….
बिठाकर आज मन्दिर में,पटों में डाल मत ताले ।
निठुर इतने न होते हैं ,प्रणय को पूजने वाले ।
लगा अभ्यास तुझसे ही, सुमन नैवेद्य पाने का
न हो अब बंद मंदिर में,क्रिया दीपक जलाने की ।
जरूरत ही तुझे क्या थी…..
दिवस अब आचमन बिन जो, गुजरते हैं अपावन से ।
कहो ! मन मोर क्या नाचे, अगर विभु दूर मधुवन से ?
नहीं यदि सीच सकते थे , हृदय के बेल भावों से –
विटप फिर क्या जरूरत थी,प्रणय का यूँ लगाने की ?
जरूरत ही तुझे क्या थी….
– अनुराधा पाण्डेय, द्वारिका, दिल्ली