नव सृजन पतझड़ करे संसार में,
भावना उपकार की आधार में।
वृक्ष के प्रति जब उदासी व्याप्त है,
व्यस्त तब पतझड़ रहे शृंगार में।
जिंदगी की एक सीमा है सखा,
बात यह पतझड़ कहे व्यवहार में।
और मौसम हैं नहीं पतझड़ सदृश,
हो जिन्हें विश्वास जग विस्तार में।
कर सके विश्राम हर हारा पथिक,
नीति यह पतझड़ रखे आचार में।
— मधु शुक्ला, सतना , मध्यप्रदेश