नहीं की जा सकती कभी भी जल के बिना,
इस अखिल ब्रम्हांड की वास्तविक कल्पना,
जड़ चेतन सभी रहते आये सदियों से जिस पर आश्रित,
वही जीवन रूपी जल वातावरण से हो रहा है वाष्पित।
मचाती है हाहाकार अपने साथ सब कुछ बहा ले जाती,
भव्य भवन, पुल, बाँध, जो भी रास्ते में अनायास पाती,
उजाड़ देती फसलें चाहे अतिवृष्टि हो या अनावृष्टि,
त्राहि-त्राहि कर रुदन कर उठती चर- अचर सृष्टि।
आपदाग्रस्त मानव की आँखों से बह निकलता अश्रुजल,
जब देखता स्वयं अपव्यय का भीषण दृश्य हर पल,
कब समझेगा ये मूर्ख मानव जल ही तो है जीवन,
इसका अभाव ही सभी का कर देता विचलित मन।
धरा का अमृत संरक्षित करने के लिए लेना होगा हमें प्रण।
तभी टाला जा सकेगा जल संकट से उपजा विश्व – रण।।
– प्रो. विनीत मोहन औदिच्य
वरिष्ठ कवि, सानेटियर एवं ग़ज़लकार
सागर, मध्य प्रदेश